18 फ़रवरी, 2015

Women and Media

Today we are dealing with this basic question that is media sensitive enough to cover the women related issue?
Everywhere the potential exists for the media to make a far greater contribution to the advancement of women.
Now it is fact that the lack of gender sensitivity in the media is evidenced by the failure to eliminate the gender-based stereotyping that can be found in public and private local, national and international media organizations.
The continued projection of negative and degrading images of women in media communications - electronic, print, visual and audio - must be changed.
The world- wide trend towards consumerism has created a climate in which advertisements and commercial messages often portray women primarily as consumers and target girls and women of all ages inappropriately.
Women should be empowered by enhancing their skills, knowledge and access to information technology. This will strengthen their ability to combat negative portrayals of women internationally.
Women need to be involved in decision-making regarding the development of the new technologies in order to participate fully in their growth and impact.
In addressing the issue of the mobilization of the media, Governments and other actors should promote an active and visible policy of mainstreaming a gender perspective in policies and programmes.

20 मार्च, 2014

ख़तरनाक है धर्म और राजनीति का घालमेल

दंगों की सबसे भयावह परिणती मौत नहीं, बल्कि वो हालात हैं जो किसी के मौत का कारण बनते हैं। मौत और किसी को मारने की हद जाने की भावना का पैदा लेना और उसे उसी क्रूरता से अंजाम देने का कारण बन जाता है किसी के किसी ख़ास धर्म का होना। यानी एक धर्म का व्यक्ति दूसरे को दुशमनी के कारण नहीं मारता बल्कि इसलीए मारता है, क्योंकि वो उसके धर्म का नहीं। घृणा और नफरत की आग बिना किसी तर्क के सबको जलाने को आतुर। देश जब आज़ाद हुआ था तो विदेशों के कई बुद्धिजीवी जी भरकर इस आशंका को पोषित कर रहे थे कि भारतवर्ष अपनी विविधता के जंजाल में उलझकर एक असफल राष्ट्र साबित होगा। भगत सिंह इस आशंका को पहले ही भांपते हुए इशारा करते हैं कि धर्मिक दायरों का संकरापन हिंदुस्तान के विचार को उड़ने के रोक सकता है। वो सवाल मज़हबी कठमुल्लाओं की तरफ उठाते हैं और ज़ोर देते हैं कि भावनाओं की रौं में बह जाना वो भी अपनी स्वीकार्यता और दबदबे की स्थापना की लालच में एक बड़ी खाई का निर्माण कर रहा है। भारतीय राजनीति में एक नारा पिछले लगभग 9 सालों से हवा में कुछ ज्यादा ही प्रमुखता से इधर-उधर बह रही है, वो है विकास की। विकास विकास और विकास, लेकिन ये कितना सच है। राजनीति में धर्म की घुसपैठ को भगत सिंह सीधे सांप्रदायिकता से जोड़ते हैं, और अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं कि जहां सांप्रदायिकता के तत्व हावी होते हैं वहां साम्राज्यवाद अपने आप आ जाता है। सांप्रदायिकता अपने निजी हित के लिए साम्राज्यवाद का समर्थक होता है, या कहें कि उसकी अगली कड़ी साम्राज्यवाद है। लेकिन क्या आज हमें किसी साम्राज्यवाद का डर है? जी हां, यहीं सवाल आज भगत सिंह को हमारे क़रीब ले आता है। जब जब दक्षिणपंथ और उसकी राजनीति की बात आती है, तब तब साथ में ही पूंजी के अधिकार या कहें पूंजी के वर्चस्व की बात आती है। उदार आर्थिक व्यवस्था अपने आप में विविधता का चेहरा रखता है, लेकिन पर्दे के पीछे पूंजी का खेल होता है। ज्यादा मौके और ज्यादा प्रतिस्पर्धा बस नाम के रह जाते हैं, क्योंकि छोटी मछली बड़ी के आगे टिकती नहीं। पूंजी और पूंजीवादी सत्ता को अपना दास तो काफी पहले ही बना चुका होता है। भगत सिंह आज से लगभग 80-90 साल पहले दंगों के विशलेषण में स्वराज और आज़ादी की राजनीति की खाल के पीछे झांकते हुए चेताते हैं कि ‘जो नेता हृदय से सबका भला चाहते हैं, ऐसे बहुत ही कम हैं. और साम्प्रदायिकता की ऐसी प्रबल बाढ़ आयी हुई है कि वे भी इसे रोक नहीं पा रहे। ऐसा लग रहा है कि भारत में नेतृत्व का दिवाला पिट गया है’। आज प्रधानमंत्री का एक उम्मीदवार सरे आम दंगों के आरोपियों को बड़े से समारोह में सम्मानित करता है। आरोपी मुजरिम नहीं भी हो सकते हैं, लेकिन संदेश क्या है? तस्वीर क्या है? बड़ा पेड़ और हिलती धरती और कटते लोग। क्या चमड़ी के पीछे का गूदा एक जैसा नहीं है, क्या दिवाला पिटा नहीं है। भगत सिंह नारा देते हैं ‘इंकलाब ज़िंदाबाद’। उनका और उनके साथियों का साफ मानना था कि आंदोलन के नारे स्पष्ट और संप्रदायों के दायरों से बाहर होने चाहिए, ख़ासकर ऐसे समाज में जहां धार्मिक और सामाजिक विविधता उसकी शक्ति सामर्थ्य हो। भगत सिंह का मानना था कि उस समय के कांग्रेस में अलग गुटों ने अपने अलग अलग नारे बनाए थे। कोई गुट ‘हर हर महादेव’ करता तो कोई ‘नारा-ए-तकबीर अल्लाह-ओ-अकबर’ या फिर ‘सत्श्रीआकाल’। समस्या यहां नहीं है। समस्या है एक लक्ष्य की प्राप्ति को लेकर चलने वाले समूह की स्पष्टता और एकजुटता। इसीलिए वो कहते हैं ‘इंकलाब ज़िंदाबाद’।

14 अगस्त, 2010

चाहिए रोज़गार का अधिकार !

आज़ादी की सालगिरह सबको मुबारक, बेहतर भारत के लिए एक विचार – क्या 100 दिन के ग्रामीण रोज़गार गारंटी, शिक्षा का अधिकार, सूचना का अधिकार और जल्द होने वाले खाद्य सुरक्षा की गारंटी के बाद अब युवाओं के रोज़गार के अधिकार के लिए क़ानून बनना चाहिए ? सारे युवाओं को रोज़गार का अधिकार संविधान दे, न ही तो बेरोज़गारी भत्ता। अगर इस युवा देश में युवाओं को भविष्य को लेकर निश्चिंतता नहीं होगी तो नक्सलवाद भी होगा और अपराध भी...

15 मई, 2010

न्याय और कुछ नहीं !

ये विरोध है, उस अन्याय के ख़िलाफ जो अब बर्दाश्त नहीं।
विरोध उन सामंतों के खिलाफ जो अभी भी हमारी सोच में सांसे ले रहा है।
हमारे ज़ुबान बंद हैं, पर सीनों में चित्कार है।

न्याय मिले जल्दी, क्योंकि देर पहले ही बहुत हो गई है।
ठेकेदार ठेका ले और दे चुके अपना फैसला।

अब फ़ैसला लेना है उन्हें जिन्हें हमने चुना, अपने बेहतर कल के लिए।
हमने हज़ारों कदम बढ़ाए, अब एक क़दम सरकार बढ़ाए।

(निरुपमा हत्या कांड की सीबीआई जांच की मांग करते पत्रकार, बुद्धिजीवी और सामाजिक कार्यकर्ता, जिन्होंने 15 मई को दिल्ली में एक शांति मार्च निकाला।)

22 मार्च, 2010

अनोखे भगत !

आज जब भगत सिंह की शहादत पर अपने चैनल के लिए एक स्टोरी लिखते वक्त किसी ने मुझसे पूछा, कि भगत सिंह के साथ तो दो और क्रांतिकारी सुखदेव और राजगुरु भी फांसी चढ़े थे। तो फिर भगत सिंह को ही ज्यादा तवज्जो क्यों। भगत सिंह को ज्यादा तवज्जो क्यों ? सवाल न तो नया है न ही अनोखा। लेकिन, भगत अनोखे हैं। फांसी पर चढ़ने के कुछ मिनट पहले तक वो लेनिन को पढ़ रहे थे। अंतिम इच्छा थी कि जेल की ही एक महिला सफाई कर्मचारी के हाथ से खाना खाना। लेकिन, अनोखापन क्या है। भगत ने २४ साल के भी कम उम्र में इतना पढ़ा कि तीन बार पीएचडी हो जाए। उससे ज्यादा उन्होंने समझा। फांसी के तीन दिन पहले उन्होंने चिठ्ठी लिखी कि तीनों क्रांतिकारियों पर ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ युद्ध छेड़ने का दोषी ठहराकर गोली मार दी जाए, न कि अंग्रेज़ पुलिस अधिकारी साउंड्रस की हत्या के जुर्म में सज़ा दी जाए। मरने का ये जुनून क्या उन्हें अनोखा बनाता है, शायद ये भी नहीं ? उन्हें अनोखा बनाता है उनके विचार। कोई भी आंदोलन या कोई भी संघर्ष तब तक अधूरा है जब तक कि यथास्थिति को ध्वस्त करते हुए नवनिर्माण की नींव न रखी जाए। नवनिर्माण का ये नक्शा भगत सिंह के पास था। ऐसा नहीं कि वो लेनिन या मार्क्सवादियों के रास्ते पर ही भारत का भविष्य देखते हैं, लेकिन समाजवाद की अवधारणा के समर्थक तो वो थे ही। आज जो वामपंथ हम अपने देश में देखते हैं वो भारतीय परिवेश में बिलकुल अप्रासंगिक है। भारतीय मानस अर्थ से ज्यादा एक ऐसे आध्यात्मिक संसार की तरफ देखता रहता है जहां ऊंच नीच, जात-पात, राजा रंक सामाजिक व्यवस्था नहीं बल्कि किसी और की बनाई व्यवस्था है जिसे हमें नहीं छेड़ना चाहिए। मामला पूरी तरह आर्थिक ताने बाने में ही नहीं गुंथा। भगत सिंह ये समझ चुके थे। वो यूंही नहीं घोषणा करते ही कि -- मैं नास्तिक हूं--वो ये भी बताते हैं कि "Why I am Atheist". भगत चाहते थे कि विद्धार्थियों, मज़दूरों और किसानों से सीधे संवाद स्थापित करें, लेकिन उन्हें इसका ज्यादा मौका नहीं मिल पाया। लेकिन, बात तो पहुंचानी थी सो उन्होंने सोच समझ कर तय किया कि अपने आप को एक उदाहरण बनाकर देश के सामने रख दो। और जाते जाते अपनी बात उन्होंने न सिर्फ अपनी लेखनी के ज़रिए कही बल्कि अदालती कार्यवाही में उन्होंने अंग्रेज़ी सरकार के दलीलों की धज्जियां उड़ा दीं। हालत ये हुई कि अंग्रेज भगत सिंह को फांसी देने में भी डरने लगे, इसीलिए उन्हें चोरी छिपे फांसी पर लटकाया गया और जलाया भी गया। भगत इसीलिए अनोखे हैं। इंक़लाब ज़िंदाबाद।

02 मार्च, 2010

घाटे में कल्याण कैसे?

बजट आ गया है, कहीं हाय तौबा मची है तो कहीं सेंसेक्स छलांगे मार रहा है। घबराने की कोई बात नहीं है क्योंकि हाथ जो आम आदमी के साथ है। लेकिन, मेरी छोटी सी बुद्धि में ये नही समा पा रहा कि आख़िर घाटा (राजकोषिय) तो सरकार को कम करना ही है, कब तक घाटा की व्यवस्था चलती रहेगी। समझदारी इसी में है कि अच्छे समय में इस काम को कर दिया जाए, न हो तो कम से कम इसे शुरु तो कर ही दिया जाए। बजट में राजकोषिय घाटा साढ़े छ फीसदी से भी ज्यादा है। आम लोग शायद इसे न समझ पाएं लेकिन इसका असर बड़े भीतर तक जाते हैं, आम आदमी की जेब को खोखला करने की हद तक। इस घाटे में राज्यों के घाटे को मिला लें तो फिर भगवान ही मालिक है। ये क़रीब १० फीसदी तक चला जाता है। यही हाल रहा तो तेल कंपनियों के दिवालिया होने में देर नहीं लगेगी। लाख करोड़ों की सब्सिडी देकर भी आम किसानों आम रोज़पेशा लोगों का कल्याण ही नहीं होता। अपने आफिस के कार वालों को हसरत भरी निगाहों से देखता था, अब उनमें से कईओं ने झाड़ पोंछ कर अपनी फटफटिया निकाल ली है। ये देखकर अजीब सा डर लगा कि चर चक्कवा पर बैठने का सपना क्या ऐसे ही रह जाएगा। क्या मेरा भी कल्याण नहीं हो पाएगा। उन करोड़ों लोगों का क्या होगा जो चर चक्कवा और दु चक्कावा जैसे सपनों के बारे में भी सोच नहीं सकते हैं। चिंता सबसे बड़ी मेरी ये है कि संविधान में दर्ज उस शब्द का क्या होगा जो एक कल्याणकारी राज्य का हमसे वादा करता है। ऐसे में याद आती है अंग्रेजी की वो कहावत कि सरवाइवल आफ द फिटेस्ट। हमारे शासक कहते हैं कि हम इतने मज़बूत हो चुके हैं कि इस तरह के महंगाई के झटके को सह सके। इस सवाल पर चर्चा करने का वक्त आ गया है कि हम पूछें कि फोकस क्या है कल्याणकारी राज्य या राजकोषिय घाटा।

27 फ़रवरी, 2010

बुरा न मानो होली है...

अभी अभी ख़बर मिली है कि अगला नोबेल शांति पुरस्कार अमिताभ बच्चन को देने का फैसला किया गया है, इसके तुरंत बाद मिस्टर बच्चन ने घोषणा की है कि वो पाकिस्तान की एक फिल्म में लीड रोल करेगें। इस फिल्म का मुहूर्त शाट में ओबामा, मनमोहन सिंह, जरदारी होंगे। शांति और मेल मिलाप की इस नई कोशिशों को देखते हुए पाकिस्तान में बैठे दाउद और हाफिज़ सईद ने ऐलान किया है कि वो सारे ग़लत धंधे छोड़कर शांति का संदेश देने वाली मिस्टर बच्चन की फिल्म में अपना पैसा लगाएगें। साथ ही उनके सारे जिहादी कश्मीर और आफगानिस्तान के लौटकर फिल्म में एक्सट्रा और दूसरे रोल करेगें। एक दूसरी ख़बर के मुताबिक सूत्रों ने बताया है कि राममंदिर के मुद्दे से जुड़े तमाम संगठनों ने ये तय किया है कि इस मुद्दे को अदालत के भरोसे छोड़कर अब उनका संगठन सर्व शिक्शा अभियान और राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन में बतौर स्वयंसेवी कार्यकर्ता के तौर पर जुड़ेगें। अर्थ जगत के ख़बरों की बात करें तो भारतीय सांख्यिकी संगठन के ताज़ा आंकड़ों से ये पता चलता है कि भारतीयों की मासिक आय तेज़ी से बढ़ते हुए अमेरिकियों की औसत आय को पार कर गई है। चीन ने अगले वित्तिय वर्ष के लिए की गई घोषणाओं में कहा है कि अब उनकी सारी मुनाफा कमाने वाली व्यापारिक इकाई अब भारतीय सरकार के अंदर अपना काम करेगी। अब सारे लाभांश पर भारतीय सरकार का अधिकार होगा, जहां चीनियों को लाभ का कुछ हिस्सा दिया जा सकता है। ये हिस्सा किताना होगा इसका फैसला संसद में दो तिहाई बहुमत से ही किया जा सकेगा। खेल की ख़बरों के बात करें तो इसी बीच पाकितानी खिलाड़ी शाहिद अफरीदी ने तय किया है कि अब वो गेंद की जगह फिर से घर की दाल रोटी खाने की आदत डाल लेगें। इस ख़बर के तुरंत बाद आस्ट्रेलियाई क्रिकेट टीम के कप्तान ने उन्हें भारतीय मालपुए और गुजिए भेजे हैं। आईसीसी के विशिष्ट पैनल ने ये तय किया है कि अगला क्रिकेट विश्वकप चुकी भारतीय उपमहाद्वीप में हो रहा है इसलिए भारतीय टीम के हर मैच में विरेंद्र सहवाग और सचिन को हर मैच में तीन तीन बार आउट होने पर ही आउट समझा जाएगा। इस बाबत सारे क्रिकेट खेलने वाले देशों को सूचना भेज दी गई है। सूत्रों ने बताया है कि ज़िम्बाबे को छोड़कर सारी टीमों ने इस सर्वसम्मती से मान लिया है। मौसम की ख़बरों की तरफ रुख करते हैं मौसम विभाग को ताज़ा मिले फैक्स में मिस्टर इंद्र जो स्वर्ग नामक राज्य के प्रमु हैं साफ किया है कि वो अगले ५० सालों तक बारिश और मानसून को किसानों की ज़रुरत का ध्यान रखते हुए लगातार आपूर्ति जारी रखेगें। भारतीय मौसम विभाग ने इस प्रस्ताव को मान लिया है।.........होली के इस विशेष बुलेटिन में फिलहाल इतना ही। नमस्कार, होली की ढेर सारी शुभकामनाएं.